दुख संताप भोग सब लिन्हा,
तिन्हू अरज कर, विरक्त स्वयं कर लिनहा,
चाह जस गई सब, छोर
सुख सम्पत्ति सम्मान सब दरस तब दीन्हा।
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दुख कब छोड़ कर जाता है?
यह समझने से पूर्व यह जान लेना अति आवश्यक है की दुख आया क्यों और वोह है क्या?
मनो स्तिथि और मनवांछित फल की कामना का पूर्ण ना होना ही दुख है। इसे ऐसा समझिए की आपके सामने भोजन प्रस्तुत किया गया, जिसमें सबकुछ स्वास्थ्य वर्धक है, परन्तु आप कुछ ऐसा खाने की इक्छा कर रहे हैं कि जिसमें विष मिला हो तो आप दुखी होते हैं, क्योंकि आपको ज्ञात नहीं की इसे ग्रहण करने से आपकी मृत्यु संभव है परन्तु आपको उसे ग्रहण करने की इच्छा है।
आप उसे अपना परम दुर्भाग्य मान कर अपना जीवन यापन करने लगते हैं। जब आपको बोध होता है कि वोही वस्तु किसी और ने ग्रहण कर ली है तो यह दुख अत्यंत अधिक हो आपको और भी कष्ट देता है।
समय आने पर चूंकि आपके संबंध अपने जैसे ही व्यक्ति से होंगे तो वह वस्तु उसके लिए भी विष का काम करेगी। बस कुछ समय अधिक या कम लग सकता है। विष जैसा असर होने पर जब मित्र की स्तिथि का ज्ञान आपको होता है तब यह ज्ञात होता कि जो आपको मिला वह आवश्यक था और शुभ फल दायक था।
दूसरी अवस्था में अगर उस विष को ग्रहण वाला कोई ऐसा व्यक्ति हो जो आपके विपरीत हो तो वह विष दुष्प्रभाव ना डाल कर उसके लिए शक्ति वाहक फल देगा। परन्तु समय के चक्र से जब इस विष का असर उस व्यक्ति के मित्र और परिवार पर पड़ेगा तो संभवतः उसका दुष्प्रभाव दिखने लगेगा। इसमें और भी समय लग सकता है।
आपको ये सत्य ज्ञात होना चाहिए कि क्या आपके लिए शुभ है और क्या नहीं। तत्पश्चात आप अपने विवेक और ज्ञान का उपयोग करते हुए, सय्यम निष्ठा, धर्म के अनुसार, प्रेम पूर्वक अपना कर्म करते हैं तो विषैला होते हुए भी कोई भी वस्तु आपका अनिष्ठ नहीं कर सकती क्योंकि आप उसे ग्रहण करने से पूर्व उसके प्रभावों के बारे में जान चुके होते हैं।
जब आप अपने अंदर मोह, माया, काम, क्रोध, लोभ और भय का त्याग कर कर्म करते है तो विरक्ति और वैराग्य आपके अंदर निवास करने लगते हैं।
आपके गृहस्थ होते हुए, विरक्ति और वैराग्य भौतिक इक्छाओं से आपको दूर नहीं रखते, जिससे आप अपने विवेक और ज्ञान से लिए गए निर्णय से सदैव सद्भाव पूर्ण होने के कारण शुभ फल भोग कर मनोवांछित फल प्राप्त करने में सक्षम होते हैं।
नारायण दृष्टि